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श्रीराम और होली की कथा

त्रेतायुग में कैसे मनाई जाती थी होली, जानें श्रीराम से जुड़ी पौराणिक कथा


होली का त्योहार सिर्फ द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण से जुड़ा नहीं है, बल्कि इसका संबंध त्रेतायुग और भगवान श्रीराम से भी गहरा है। कहा जाता है कि त्रेतायुग में भी होली मनाई जाती थी, लेकिन तब इसका रूप आज से थोड़ा अलग था। ये सिर्फ रंगों का खेल नहीं था, बल्कि सामाजिक, धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व से जुड़ा हुआ एक अनोखा त्योहार था।तो आइए जाने कि त्रेतायुग में होली कैसे मनाई जाती थी और इसका भगवान श्रीराम से क्या संबंध है।



त्रेतायुग की होली 


शास्त्रों के अनुसार त्रेतायुग में अयोध्या नगरी भव्यता और वैभव का प्रतीक थी , वहां होली सिर्फ एक त्योहार नहीं बल्कि रामराज्य की खुशहाली और समृद्धि का उत्सव मानी जाती थी। इसके साथ ही राजा दशरथ के शासनकाल में अयोध्या में होली बहुत धूमधाम से मनाई जाती थी। उस समय होली में गुलाल और प्राकृतिक रंगों के साथ-साथ फूलों की वर्षा भी की जाती थी। नगर की गलियों में झूमते हुए लोग शंख, ढोल-नगाड़ों और मृदंग की ध्वनि के साथ होली खेलते थे।



भगवान श्रीराम और माता सीता की पहली होली


भगवान श्रीराम विवाह के बाद जब पहली बार अयोध्या और मिथिला में आए, तब होली का भव्य आयोजन किया गया था। माना जाता है कि माता सीता और श्रीराम की पहली होली बेहद खास थी। जब माता सीता अयोध्या आईं, तो पूरी नगरी ने फूलों और इत्र से उनका स्वागत किया।


होली के दिन श्रीराम और माता सीता ने पूरे राजपरिवार के साथ रंगों की होली खेली। उस समय रंगों को कुश, हल्दी, चंदन और टेसू के फूलों से बनाया जाता था, जिससे ये त्योहार सिर्फ मनोरंजन का नहीं, बल्कि आयुर्वेद और स्वास्थ्य से भी जुड़ा हुआ था।



हनुमान जी और वनवास काल में होली


जब भगवान श्रीराम 14 वर्षों के वनवास पर गए, तब भी होली की परंपरा जारी रही। इसके साथ ही श्रीराम चित्रकूट और पंचवटी में थे, तब वहां के ऋषि-मुनियों और वनवासियों ने उनके साथ फूलों और हल्दी की होली खेली थी। 


बता दें कि वनवासी समुदाय में ये त्योहार सादगी से मनाया जाता था, लेकिन श्रीराम की उपस्थिति ने इसे और भी खास बना दिया। लोग मिलकर भजन-कीर्तन करते, भोग लगाते और आपस में प्रेम और भाईचारे का संदेश देते थे।



लंका विजय और होली का उत्सव


जब भगवान श्रीराम ने लंका पर विजय प्राप्त की और माता सीता को वापस अयोध्या लेकर आए, तब पूरे नगर में विशाल होली उत्सव मनाया गया। यह सिर्फ एक त्योहार नहीं, बल्कि अधर्म पर धर्म की जीत का उत्सव बन गया।


उस समय होली का मतलब सिर्फ रंगों का खेल नहीं, बल्कि बुराई पर अच्छाई की विजय का जश्न था। इसी वजह से श्रीराम के राज्याभिषेक के बाद होली और भी भव्य रूप से मनाई जाने लगी।



त्रेतायुग की होली से मिली परंपरा


त्रेतायुग में मनाई जाने वाली होली की कई परंपराएं आज भी हमारे समाज में जीवित हैं।


1. फूलों और प्राकृतिक रंगों की होली: आज भी कई स्थानों पर टेसू के फूलों से होली खेली जाती है।


2. भजन और कीर्तन की परंपरा: आज भी होली के दौरान फाग गीत और भजन गाने की परंपरा है।


3. गुलाल और अबीर से होली: यह परंपरा त्रेतायुग से चली आ रही है, जब हल्दी और चंदन से होली खेली जाती थी।


4. भोग और प्रसाद: होली पर विशेष पकवान जैसे गुजिया, मालपुआ और ठंडाई बनाना भी त्रेतायुग की ही परंपरा मानी जाती है।



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