नवीनतम लेख

विश्वेश्वर व्रत कथा

यलेुरू से जुड़ा हुआ है विश्वेश्वर व्रत, जानिए कथा और रखने का कारण 


सनातन धर्म में प्राचीन काल से ही विश्वेश्वर व्रत भगवान शिव को समर्पित एक अत्यंत पवित्र व्रत है। इस व्रत को शिव जी की कृपा प्राप्त करने के उद्देश्य से रखा जाता है। यह व्रत विशेष रूप से भक्तों के लिए काफ़ी महत्वपूर्ण माना जाता है। क्योंकि, इसे करने से भगवान शिव से जो भी वरदान मांगा जाता है वह जरूर मिलता है। कर्नाटक के येलुरु में भगवान शिव का एक प्रसिद्ध मंदिर है। इस मंदिर को येलुरु श्री विश्वेश्वर मंदिर के नाम से जाना जाता है। यह स्थान विश्वेश्वर व्रत की विशेष महिमा को दर्शाता है।


विश्वेश्वर व्रत का महत्व


इस व्रत का पालन करने वाले भक्तों का विश्वास भगवान के प्रति और अटल होता है। सच्ची श्रद्धा से पूजन करने से भगवान शिव अपने भक्तों की सारी मनोकामनाओं को पूर्ण करते हैं। यह व्रत विशेष रूप से कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर मनाया जाता है। इसलिए, इसके साथ जुड़ी कथाएं भी शिव भक्तों के बीच अत्यंत लोकप्रिय हैं। धार्मिक कथाओं के अनुसार भगवान शिव ने इस व्रत का पालन करने वाले राजा कुंडा को वरदान देकर उन्हें अमरत्व और राज्य की सुरक्षा का आशीर्वाद दिया था।


क्या है विश्वेश्वर व्रत की पौराणिक कथा? 


धार्मिक कथाओं के अनुसार प्राचीन समय में कुथार राजवंश में एक राजा हुआ करते थे। जिनका नाम कुंडा राजा था। राजा कुंडा अत्यंत धर्मप्रिय और शिव भक्त थे। एक बार उन्होंने अपने राज्य में मुनि भार्गव को निमंत्रण भेजा ताकि वह उनके राज्य में पधारें और राज्य में धार्मिक अनुष्ठान पूर्ण करें। परंतु मुनि भार्गव ने निमंत्रण अस्वीकार कर दिया और कहा कि कुंडा राजा के राज्य में कोई भी पवित्र नदी या मंदिर नहीं है जो कि ऋषि-मुनियों के ध्यान और पूजा के लिए अनुकूल हो।


मुनि भार्गव की यह बात सुनकर राजा कुंडा को अत्यंत दुख हुआ और उन्होंने निर्णय लिया कि वह राजपाठ छोड़कर गंगा के किनारे तपस्या करेंगे। राजा ने गंगा किनारे जाकर भगवान शिव की घोर तपस्या शुरू की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव प्रकट हुए और उन्हें मनचाहा वरदान मांगने को कहा। राजा कुंडा ने भगवान शिव से अपने राज्य में ही निवास करने की विनती की ताकि उनके राज्य में एक पवित्र स्थान स्थापित हो सके। भगवान शिव ने उनकी यह प्रार्थना स्वीकार कर ली और उनके राज्य में एक कंद के वृक्ष में वास करना आरंभ किया।


ऐसे हुई येलुरु विश्वेश्वर मंदिर की स्थापना


भगवान शिव के इस वास स्थल के संबंध में एक अन्य पौराणिक घटना भी काफ़ी प्रसिद्ध है। एक दिन एक आदिवासी स्त्री अपने खोए हुए बेटे को जंगल में ढूंढते हुए कंद के वृक्ष के पास पहुंची। उसने उस वृक्ष पर तलवार से प्रहार किया जिससे उसमें से रक्त बहने लगा। यह देखकर वह स्त्री डर गई और समझी कि उसने अपने पुत्र को चोट पहुंचा दी है। इस घटना के बाद भगवान शिव वहां लिंग के रूप में प्रकट हुए। तभी से इस स्थान पर मंदिर की स्थापना की गई और इसे येलुरु विश्वेश्वर मंदिर के नाम से जाना जाने लगा।


आज भी शिवलिंग पर हैं तलवार के निशान


यह मंदिर आज भी महाथोबारा येलुरु श्री विश्वेश्वर मंदिर के रूप में प्रसिद्ध है और यहां भगवान शिव का एक दिव्य शिवलिंग स्थापित है। ऐसा कहा जाता है कि उस आदिवासी स्त्री की तलवार से जो प्रहार हुआ था। उसके निशान आज भी इस शिवलिंग पर देखे जा सकते हैं। इस मंदिर में आज भी भगवान शिव को नारियल पानी या नारियल तेल अर्पित करने की परंपरा है। कहा जाता है कि उसी से कंद का खून बहना बंद हुआ था।


पौष मास है छोटा पितृ पक्ष

पौष मास को छोटा पितृ पक्ष भी कहा जाता है। सूर्यदेव के कन्या राशि में आने पर होने वाले मुख्य पितृ पक्ष के अलावा इस माह में भी श्राद्ध तथा पिंडदान के अलावा भगवान विष्णु और सूर्यदेव की पूजा का भी विशेष महत्व है।

कुलदेवी की पूजा, जो करता है दिन रात (Kuldevi Ki Puja Jo Karta Hai Din Raat)

कुलदेवी की पूजा,
जो करता है दिन रात,

Hey Bhole Baba Hey Bhandari (हे भोले बाबा हे भंडारी)

हे भोले बाबा हे भंडारी,
नाम जपूँ तेरा,

मन मेरा मंदिर, शिव मेरी पूजा(Man Mera Mandir Shiv Meri Pooja)

ॐ नमः शिवाय, ॐ नमः शिवाय
सत्य है ईश्वर,

यह भी जाने