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गुप्त नवरात्रि के छठे दिन माता छिन्नमस्ता की उपासना की जाती है। मान्यता है कि देवी की पूजा करने से आत्म-दय, भय से मुक्ति और स्वतंत्रता प्राप्ति में सहायता मिलती है। आज हम यहां माता के मंदिर के बारें में जानने वाले हैं। झारखंड की राजधानी रांची से करीब 80 किलोमीटर की दूरी पर रजरप्पा में स्थित मां छिन्नमस्तिका का मंदिर धार्मिक महत्व के साथ पर्यटन के लिहास से भी अनुपम स्थान है। प्रकृति के सुरम्य नजारों के बीच बसा भक्ति का ये पावन स्थान कई खूबियां समेटे हैं। प्राचीन काल में ये स्थान मेधा श्रर्षि की तपोस्थली के रुप में जाना जाता रहा है। हालांकि वर्तमान में उनसे जुड़ा कोई चिन्ह यहां नजर नहीं आता। ये मंदिर दामोदर-भैरवी संगम के किनारे त्रिकोण मंडल के योनि यंत्र पर स्थापित है, जबकि पूरा मंदिर श्रीयंत्र का आकार लिए है। लाल-नीले और सफेद रंगों के अच्छे समन्वय से मंदिर काफी खूबसूरत लगता है। इस मंदिर को शक्तिपीठ माना जाता है। माता छिन्नमस्ता 10 महाविद्यायों में से एक हैं। गुप्त नवरात्रि में भी मां छिन्नमस्ता की पूजा-उपासना की जाती है। मां छिन्नमस्तिके के गले में सर्पमाला और मुंडमाल सुशोभित है। खुले केश, आभूषणों से सुसज्जित हैं। इनके अगल-बगल डाकिनी और शाकिनी खड़ी हैं, जिन्हें वह रक्तपान करा रही हैं और स्वयं भी रक्तपान कर रही हैं। इनके गले से रक्त की तीन धाराएं बह रही हैं।इनके इस रूप के पीछे एक पौराणिक कथा है। चलिए जानते हैं।
माता छिन्नमस्ता की पौराणिक कथा
माता छिन्नमस्ता की पौराणिक कथा के अनुसार, एक बार माता पार्वती मंदाकिनी नदीं मे अपनी सहेलियों के साथ स्नान-ध्यान कर रही थी। उसी समय मां की सहचरियों को भूख लगी। भूख की पीड़ा के चलते दोनों सहचरियों का चेहरा मलीन हो गया। जब दोनों को भोजन के लिए कुछ नहीं मिला तो उन्होंने माता से भोजन की व्यवस्था करने की प्रार्थना की। लेकिन माता ने दोनों की बात को अनसुना कर दिया। उसके बाद दोनों सहचरियों ने माता से कहा कि मां को अपने शिशु का पेट भरने के लिए अपना रक्त तक पिला देती है। परंतु आप हमारी भूख मिटाने के लिए कुछ नहीं कर रही हैं। अपनी सहेलियों की बात सुनकर मां पार्वती को क्रोध आया और उन्होंने नदीं से बाहर आकर खड्ग से अपने सिर को काट दिया, जिससे उनके धड़ से रक्त की तीन धाराएं निकलती है। दो धाराएं दोनों सहेलियों के मुंह में गिरती है और तीसरी धारा स्वंय मां के मुख में गिरती है। इससे सभी देवताओं के बीच कोहराम मच जाता है। जिसके बाद भगवान शिव कबंद का रुप धारण कर देवी के प्रचंड रुप को शांत करते हैं। देवी के इस रुप का नाम छिन्नमस्ता पड़ा। छिन्नमस्ता जीनम देने वाली और जीवन लेने वाली देवी है। व्याख्या के आधार पर, उसे यौन आत्म-नियंत्रण का प्रतीक और यौन ऊर्जा का अवतार दोनों माना जाता है। वे मृत्यु, अस्थायीता और विनाश के साथ-साथ जीवन, अमरता और मनोरंजन का भी प्रतिनिधित्व करती है। वहएक महत्वपूर्ण तांत्रिक देवी है, जो गूड़ तांत्रिक साधकों के बीच प्रसिद्ध और पूजी जाती है। मां सभी चिंताओं को हर लेती है। ऐसा माना जाता है कि माता के दरबार में सच्ची श्रद्धा और भक्ति भाव से जाने वाले भक्तों की मनोकामना जरुर पूरी होती है।
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