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भारत विविध परंपराओं और संस्कृतियों का अद्भुत संगम है। यहाँ हर त्योहार सिर्फ उत्सव नहीं होता बल्कि लोक जीवन से गहराई से जुड़ी परंपराओं और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को भी बढ़ावा देने वाला होता है। उत्तर पूर्व भारत में एक ऐसा ही एक अनूठा और प्रचलित पर्व है "हुक्का पाती।" दरिद्रता से मुक्ति, समृद्धि और समरसता के प्रतीक के रूप में यह मनाया जाता है। आधुनिकता के इस दौर में भी गांवों में यह परंपरा जीवंत है। जबकि, शहरों में इसका प्रभाव नहीं के बराबर दिखता है। आइए इस आलेख में आपको इस अनूठे प्रथा के बारे में बताते हैं।
दीपावली की रात को हुक्का पाती के माध्यम से लक्ष्मी का स्वागत और दरिद्रता का नाश किया जाता है। यह प्रथा प्रतीकात्मक रूप से घर-परिवार की सुख-समृद्धि बनाए रखने का संदेश देती है। इसमें संठी का उपयोग किया जाता है। दरअसल, हुक्का पाती की तैयारी में संठी (लकड़ी की पतली डंडियाँ) का विशेष महत्व होता है। दीपावली से पहले लोग इन लकड़ियों की खरीदारी करते हैं और पाँच संठियों को एकत्र कर उन्हें अलग-अलग जगहों पर बाँधते हैं। पूजा के बाद इसे घर के मुख्य दरवाजे के दीपक से प्रज्ज्वलित किया जाता है और तीन बार घर से बाहर ले जाकर बुझाया जाता है।
घर के पुरुष सदस्य संठी को जलाते हैं और अपने हाथ में लेकर पूरे घर का भ्रमण करते हैं। जब लकड़ी छोटी हो जाती है तब उसे पाँच बार लांघकर बुझाया जाता है। मान्यता है कि इस विधि से घर में लक्ष्मी का स्थायी वास होता है और दरिद्रता का नाश होता है।
पहले के समय में संठी की खेती गांवों में बड़े पैमाने पर होती थी और इसे लोग दीपावली के दौरान एक-दूसरे में मुफ्त बाँटते थे। हालाँकि, आधुनिकता के कारण खेती कम होने लगी है और अब संठी चुनिंदा कस्बों के बाजारों में ही मिलती है। इन दिनों संठी की कीमतें भी बढ़ रही है लेकिन ग्रामीण इलाकों में इसकी खरीदारी और उपयोग अब भी बदस्तूर जारी है।
शहरीकरण और जगह की कमी के कारण शहरों में हुक्का पाती का प्रचलन ना के बराबर है। छोटे घरों या फ्लैट्स में रहने वाले लोगों के लिए इस परंपरा का पालन करना कठिन है। इसके बावजूद गाँवों में यह परंपरा अब भी पूरे जोश के साथ निभाई जाती है।
भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तर पूर्व भारतीय क्षेत्र में नेपाल के बॉर्डर इलाके में पड़ने वाले मिथिलांचल में दीपावली पर मिट्टी के दीये जलाने का विशेष महत्व तो है ही साथ ही लक्ष्मी पूजा के लिए यहाँ चावल के आटे से बने दीये का उपयोग किया जाता है। यह अनोखी परंपरा आज भी प्रचलित है और लोग इसे श्रद्धा के साथ निभाते हैं। मिट्टी के दीयों की बिक्री से कुम्हार परिवारों को भी रोजगार मिलता है। इस अवसर पर कई गाँवों की महिलाएँ भी मिट्टी के दीये बनाकर बाजारों में बेचती हैं।
इस क्षेत्र में दीपावली का एक और महत्वपूर्ण पहलू है पितरों की विदाई। मान्यता है कि महालया के बाद पितृपक्ष के दौरान पूर्वज धरती पर आते हैं और दीपावली की रात को उनकी विदाई की जाती है। इस अनुष्ठान में पटुआ के डंठल में घास बाँधकर उसे दीप से जलाया जाता है। इसे घर के हर कमरे में घुमाते हुए धान या सरसों छींटा जाता है। इस प्रथा को उकाऊ-टीका या उल्का भ्रमण भी कहा जाता है, जिसमें पितरों को धरती से स्वर्ग की ओर प्रस्थान के लिए विदाई दी जाती है।
लक्ष्मी पूजा के बाद आधी रात को महिलाएँ संठी से गोल सूप को पीटती हैं। इसे ब्रह्म मुहूर्त में संपन्न किया जाता है। इस दौरान महिलाएँ बोलती हैं:
इस प्रथा का उद्देश्य दरिद्रता को दूर भगाकर घर में धन-धान्य और सुख-समृद्धि को आमंत्रित करना है।
पढ़ें पूरी कथा:-
https://www.bhaktvatsal.com/gyanganga/diwali-par-soop-pitne-ki-parampara
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