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यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥4-7॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥4-8॥
गीता के चौथे अध्याय के श्लोक क्र. 7 और 8 में लिखी ये बात अक्षर-अक्षर सत्य मानी जाती है। इस श्लोक के अनुसार जब जब धरती पर पाप बढ़ता है और धर्म की हानि होती है तब-तब प्रभु अवतार लेते हैं और दुष्टों का नाश कर धर्म की स्थापना करते हैं। इसी परंपरा को निभाते हुए भगवान विष्णु ने अपने चौथा अवतार नरसिंह रूप में लिया था। लेकिन विष्णु का ये अवतार बड़ा ही विचित्र और अद्भुत माना जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार नरसिंह भगवान का प्राक्ट्य एक खंभे में से हुआ था और अपने प्राकट्य के समय भगवान बड़े ही बड़े रौद्र रूप में थे। नरसिंह अवतार के दौरान भगवान का आधा शरीर सिंह यानी शेर का और आधा शरीर इंसान का था। पद्म पुराण और स्कंद पुराण के अनुसार यह अवतार वैशाख महीने के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी के दिन हुआ था। अपने अवतार में भगवान ने राजा हिरण्यकश्यप के पुत्र भक्त प्रहलाद की दैत्यों से रक्षा की थी और हिरण्यकश्यप का वध किया था। भक्तवत्सल के इस आर्टिकल में जानेंगे नरसिंह अवतार से जुड़ी सारी कथा विस्तार से:
भगवान विष्णु का यह चौथा अवतार बहुत ही गुस्से वाले अवतारों में शामिल है। इस अवतार में भगवान आधे नर और आधे सिंह के रूप में एक खंबे से अवतरित हुए थे। अब प्रश्न उठता है कि आखिर भगवान ने यह अपने अवतार के लिए ये अद्भुत रूप ही क्यों चुना? इसका कारण हिरण्यकश्यप को मिला वरदान है। दरअसल हिरण्यकश्यप ने घोर तपस्या करने के बाद ब्रह्मा देव से अमरता का वरदान मांगा था, लेकिन अमरता के वरदान की मना करते हुए उन्होंने हिरण्यकश्यप को ऐसा वर दिया था जिससे हिरयणकश्यप खुद को अमर समझने लगा। हिरयणकश्यप ने ब्रह्मा से वरदान मांगा था कि न वो दिन में मरे, न रात में, उसे न तो मनुष्य मार सके, न पशु पक्षी, न वो पानी में मरे, न हवा या धरती में , उसे न कोई अस्त्र मार सके न कोई शस्त्र। इस वरदान के बाद हिरयणकश्यप स्वयं को अमर समझने लगा और उसने मानवों पर जुल्म ढाना शुरु कर दिया। जब हिरयणकश्यप की मृत्यु की बारी आई तो श्री हरि विष्णु ने ब्रह्मा देव के वरदान की लाज रखते हुए उसे मनुष्य और जानवर दोनों रूप में मारा। जिस समय हिरयणकश्यप का वध हुआ उस समय न दिन था, न ही रात, न वे घर के भीतर था। भगवान ने उसे हवा और धरती के बीच अपनी गोद में लेटाकर, बिना किसी शस्त्र के अपने नाखूनों से परलोक पहुंचाया। जिस स्थान पर हिरण्यकश्यप का वध किया गया वह न तो घर के भीतर था, न बाहर मतलब भगवान ने उसे घर की देहरी पर मारा। इस तरह वरदान भी पूर्ण हुआ और भगवान के अवतार का उद्देश्य भी सार्थक हो गया।
हिरण्यकश्यप कश्यप मुनि और दिति की संतान था। दिती उनकी दूसरी पत्नी और असुरों की माता थी। एक बार दिती ने संध्या काल में मुनि को काम क्रीड़ा के लिए मजबूर किया। पत्नी के हठ के आगे मुनि ने गलत समय पर काम वासना से रतिक्रिया करने के पश्चात दिती से कहा कि तुम्हारे गर्भ से दो महापापी असुर पुत्रों का जन्म होगा जो भगवान विष्णु के हाथों मारे जाएंगे। लेकिन इस कुल को तारने वाला तुम्हारा नाती भगवान का परम भक्त होगा। मुनि के वचनों के अनुसार दिती ने दो पुत्रों को जन्म दिया। हिरण्याक्ष तथा हिरण्यकश्यप। हिरण्याक्ष धन लोभी था जिसे भगवान विष्णु ने वराह अवतार लेकर तार दिया और हिरण्यकश्यप जो भोगी विलासी था उसे प्रहलाद जी की रक्षा करते हुए भगवान ने खंबे से अवतार लेकर धर्म की रक्षा की।
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