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गुरुवायुर एकादशी मंदिर की पौराणिक कथा

गुरुवायुर एकादशी पर इस मंदिर में करें भगवान कृष्ण की पूजा, जानें महत्व और इससे जुड़ी पौराणिक कथा 


"दक्षिण का स्वर्ग" कहे जाने वाले अतिसुन्दर राज्य केरल में गुरुवायुर एकादशी का पर्व पूरी आस्था के साथ मनाया जाता है। यह पर्व गुरुवायुर कृष्ण मंदिर में विशेष रूप से मनाया जाता है, जो भगवान श्रीकृष्ण को समर्पित है। ऐसी मान्यता है कि इस एकादशी पर गुरुवायुर मंदिर में भगवान श्रीकृष्ण की विधि-विधान से पूजा करने से मनवांछित फल प्राप्त होता है और व्यक्ति के सभी पापों का क्षय होता है। मलयालम कैलेंडर के अनुसार गुरुवायुर एकादशी की तिथि वृश्चिक मास के शुक्ल पक्ष के ग्यारहवें दिन होती है। यह एकादशी 41 दिनों तक चलने वाले प्रसिद्ध मंडला पूजा उत्सव के दौरान आती है। साल 2024 में गुरुवायुर एकादशी 11 दिसंबर को मनाई जा रही है। ऐसे में आइए जानते हैं गुरुवायुर मंदिर का महत्व और इस मंदिर की पौराणिक कथा के बारे में। 


गुरूवायुर कृष्ण मंदिर का महत्व 


केरल के प्रसिद्ध गुरुवायुर कृष्ण मंदिर में गुरुवायुर एकादशी का पर्व बहुत ही उत्साह और श्रद्धा के साथ मनाया जाता है। इस दिन मंदिर में विशेष पूजा-अर्चना की जाती है, जिसमें उदयस्थमन पूजा अर्थात सुबह से शाम तक की जाने वाली पूजा शामिल है। इसके अलावा, इस दिन हाथियों का एक भव्य जुलूस निकाला जाता है, जो इस उत्सव की एक विशेष आकर्षण है। रात्रि में पूजा करने के बाद जुलूस के साथ ही दीपदान किया जाता है, जिसे एकादशी विलक्कू कहते हैं।  इस दिन निर्माल्य दर्शन भी किया जाता है। यह दर्शन सुबह 3 बजे से शुरू होकर अगले दिन अर्थात द्वादशी तिथि पर सुबह 9 बजे तक होता है। इसके अलावा, द्वादशी के दिन मंदिरों में द्वादशी पानम नाम से अपनी क्षमता के अनुसार धन चढ़ाने की भी परंपरा है। यह उत्सव गुरुवायुर कृष्ण मंदिर की एक अद्वितीय परंपरा है, जो इस मंदिर के महत्व को और भी बढ़ाती है। 


गुरुवायुर मंदिर से जुड़ी पौराणिक कथा


गुरूवायुर मंदिर से जुड़ी पौराणिक कथा के अनुसार, एक समय महाराज सुतपा और उनकी रानी ने पुत्र प्राप्ति के लिए ब्रह्माजी की आराधना की, जिससे प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने वह मूर्ति महाराज सुतपा को प्रदान कर दी, और उनसे इस मूर्ति की नियमित उपासना करने को कहा। महाराज इस मूर्ति की पूरी श्रद्धा से पूजा-अर्चना करने लगे। इस भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने उन्हें वरदान दिया कि ‘आपकी रानी के गर्भ से मैं स्वयं विष्णु कई रूपों में जन्म लूंगा।’


अगले जन्म में इन्हीं राजा सुतपा और उनकी रानी ने राजा कश्यप और रानी अदिति के नाम से जन्म लिया। इस समय भगवान विष्णु इनके घर बावन रूप में जन्में। इसके बाद फिर अगले जन्म में सुतपा वासुदेव के रूप में जन्में। उनकी पत्नी देवकी के गर्भ से कृष्ण का जन्म हुआ। कंस का वध करने के पश्चात् इस प्राचीन मूर्ति को वासुदेव ने धौम्य ऋषि को प्रदान कर दिया। ऋषि धौम्य ने इस मूर्ति को द्वारिका में प्रतिष्ठापित किया।


काफी समय बाद एक बार श्री कृष्ण ने अपने मित्र उद्धव को देव गुरु बृहस्पति के पास एक विशिष्ट संदेश लेकर भेजा। संदेश यह था कि द्वारिकापुरी शीघ्र ही समुद्र में जलमग्न होने वाली है। उस समय वह मूर्ति वहीं विराजमान थी। भगवान कृष्ण ने उद्धव को बताया कि वह मूर्ति असाधारण है, और कलियुग में यह मेरे भक्तों के लिए अत्यन्त कल्याणकारी सिद्ध होगी।


जब देवगुरु बृहस्पति कृष्ण का संदेश पाकर द्वारिका पहुंचे, तब तक द्वारिका समुद्र में डूब चुकी थी। देवगुरु बृहस्पति ने वायुदेव की सहायता से इस मूर्ति को समुद्र से निकाला, तथा इसे स्थापित करने के लिए उपयुक्त स्थान की खोज शुरू की। वर्तमान समय में यह मूर्ति केरल में स्थापित है। कहा जाता है कि जिस मंदिर में यह मूर्ति स्थापित हुई, वहां एक सुंदर झील थी। इस झील के तट पर भगवान शिव अपनी अर्धांगिनी पार्वती के साथ जल क्रीड़ा किया करते थे। शिव से आज्ञा प्राप्त करके ही बृहस्पति जी ने उस प्राचीन मूर्ति की स्थापना यहां की थी।


चूंकि केरल में उस पवित्र स्थान पर गुरु और वायु देव ने इस मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा की, इसलिए इसका नाम गुरुवायूर पड़ा। 


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