क्यों मनाते हैं कजलियां पर्व (Kyon Manaate Hain Kajaliyaan Parv)

रक्षाबंधन के एक दिन बाद क्यों मनाते हैं कजलियां पर्व, जानिए क्या है इनका इतिहास


भारत को विविधताओं का देश माना जाता है। ऐसा इसलिए क्योंकि भारत में हर राज्य और क्षेत्रों के अपने अलग त्यौहार हैं जिसे ग्रामीण स्तर पर बड़े धूम-धाम से मनाया जाता है। ऐसा ही एक त्यौहार मध्यप्रदेश के विंध्य क्षेत्र में मनाया जाता है जिसे कजलियां या भुजरियां कहते हैं। 


यह एक ऐसा त्यौहार है जो राजस्थान और उत्तर प्रदेश के भी कई क्षेत्रों में मनाया जाता है, और इसके जरिए इंसान को प्रकृति प्रेम, बुजुर्गों और किसानों की महत्वता और उनकी मेहनत के बारे में सीख मिलती है। भक्तवत्सल के इस आर्टिकल में जानते हैं क्या है कजलियां और इस त्योहार को कैसे मनाते हैं, साथ ही जानेंगे इसके पौराणिक इतिहास को भी...  


कजलियां क्या हैं :


बुंदेलखंड और विंध्य क्षेत्र में रक्षाबंधन के दूसरे दिन कजलियां मनाया जाता है। इसे  भुजरिया के नाम से भी जाना जाता है। इस बार यह त्यौहार रक्षाबंधन के दूसरे दिन यानी 20 अगस्त को धूमधाम से मनाया जाएगा। कजलियां की मान्यताएं जितनी धार्मिक हैं, उतनी ही सामाजिक भी है। कजलियां पर्व प्रकृति प्रेम और खुशहाली से जुड़ा है। इस दिन लोग विशेष रूप से कजली का आयोजन करते हैं। इस दिन गांव के लोग एक विशेष पूजा करते हैं और कजली के गीत गाते हैं। 


क्या होता है इस दिन और किस तिथि पर होती है इसकी शुरुआत :


इस त्यौहार में विशेष रूप से क्षेत्रीय औरतें हिस्सा लेती हैं। जो नागपंचमी के अगले दिन यानी छट या सप्तमी को अलग-अलग खेतों से मिट्टी लाकर बर्तनों में भरती हैं जिसमें गेहूं के बीज बो दिए जाते हैं। जिसके बाद उस मिट्टी की पूजा की जाती है और फिर नाई की पत्नी यानी नाउन से छुले का दोना मंगवा के उसमें मिट्टी को रख देती हैं। यह बीज कजलियों यानी भुजरियों में परिवर्तित हो जाती हैं जिसके एक सप्ताह बाद एकादशी के दिन उनकी पूजा की जाती है। इसके बाद रक्षाबंधन के एक दिन बाद यानी एकम को सुबह उन्हे किसी तालाब या नदी के पास ले जाकर उन्हे मिट्टी से खुटक लिया जाता है, और सभी दोने को विसर्जन कर दिया जाता है। खोंटीं हुई कजलियाँ औरतों एवं बच्चों को बांटी जाती हैं। गेहूं की कोमल कजलियों को औरतों और बच्चों द्वारा परिवार के सदस्यों और आस-पास के घरो में जाकर उनके कानों के ऊपर खोसकर टीका लगाती हैं। कहा जाता है कि घर के छोटे बच्चे और महिलाएं अपने बड़े लोगों से कजलियों का आदान-प्रदान करते हैं और बड़े शगुन के तौर पर उन्हें कुछ भेंट देते हैं। ये त्योहार लोगों में आपसी सामंजस्य बढ़ाने और रिश्तों में मिठास लाने के लिए मनाया जाता है। 


पौराणिक इतिहास :


स्थानीय कथा के अनुसार, साल 1182 में महोबा के राजा परमाल की बेटी चंद्रावली  सहेलियों के साथ भुजरी के विसर्जन के लिए कीरत सागर जा रही थीं।  लेकिन तभी पृथ्वीराज चौहान के सेनापति चामुंडा राय ने उनपर हमला बोल दिया। पृथ्वीराज चौहान की अपने बेटे की शादी चंद्रावल से करवाना चाहते थे इसलिए वह चंद्रावली को अगवा करना चाहते थे। पृथ्वीराज चौहान ने यह हमला ऐसे समय में किया था, जब आल्हा और ऊदल को कई आरोपों के चलते राजा परमाल के राज्य से निकाल दिया गया था। ऐसे में रक्षाबंधन के दिन राजकुमारी चंद्रावल और उनकी सहेलियों को पृथ्वीराज चौहान की सेना से घिरा देख राजा परमाल के पुत्र राजकुमार अभई चंद्रावली को बचाने के लिए कूद पड़े लेकिन चौहान की सेना से हारकर वीरगति को प्राप्त हुए।  


अभई के मारे जाने के बाद जैसे ही चौहान की सेना राजकुमारी की तरफ आगे बढ़ी तभी चंदेल सिंह सपूतों आल्हा और ऊदल साधु के भेष में वहां आ गए।  दोनों के साथ उनका दोस्त मलखान भी था। उसके बाद कीरत सागर के मैदान पर चंदेल और चौहान वंशजों की सेनाओं में भयंकर युद्ध हुआ। इस युद्ध में पृथ्वीराज चौहान के दो पुत्रों की जान चली गई और आल्हा-ऊदल ये युद्ध जीत गए। इस युद्ध के कारण रक्षाबंधन के दिन राजकुमारी चंद्रावल भुजरी का विसर्जन नहीं कर सकीं और ना ही अपने भाइयों राखी बांध सकीं। इसी कारण आज भी यहां पर एक दिन बाद भुजरिया विसर्जन और रक्षाबंधन मनाने की परंपरा है।

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अरे हों...
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रे अंगना पधारो महारानी, मोरी शारदा भवानी।

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