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महिला नागा साधुओं का अपना अलग संसार है, जो माई बाड़ा के नाम से जाना जाता है। ये साध्वीएं पुरुष नागा साधुओं की तरह ही ईश्वर को समर्पित जीवन जीती हैं, लेकिन उनकी आध्यात्मिक यात्रा एक अलग रंग में रंगी होती है। उनकी वेशभूषा और रीति-रिवाज उनकी विशिष्ट पहचान हैं। सभी साधु-साध्वी उन्हें माता के समान मानते हैं। 2013 के प्रयागराज कुंभ में माई बाड़ा का उदय हुआ और इसे दशनाम संन्यासिनी अखाड़ा का नाम दिया गया, जो उनके बढ़ते प्रभाव का प्रतीक है। आइए भक्त वत्सल के इस लेख में महिला नागा साधु के बारे में विस्तार से जानते हैं।
नागा साधु केवल एक ही संप्रदाय से संबंधित नहीं होते हैं। वैष्णव, शैव और उदासीन जैसे विभिन्न संप्रदायों के अखाड़े नागा साधु तैयार करते हैं। इसका मतलब है कि नागा साधु भगवान विष्णु, शिव या अन्य देवताओं के उपासक हो सकते हैं। महिला नागा साधु भी कठोर तपस्या करती हैं, लेकिन वे पारंपरिक रूप से वस्त्र धारण करती हैं।
नागा साधुओं की दुनिया में वस्त्र धारण करने के तरीके काफी विविध हैं। कुछ नागा साधु वस्त्र धारण करते हैं, जिन्हें श्रीदिगंबर कहा जाता है, जबकि अन्य पूरी तरह से निर्वस्त्र रहते हैं, जिन्हें दिगंबर कहा जाता है। यह उनके व्यक्तिगत आध्यात्मिक पथ और उस अखाड़े के नियमों पर निर्भर करता है जिससे वे जुड़े हुए हैं।
जब महिलाएं संन्यास लेती हैं और नागा दीक्षा ग्रहण करती हैं, तो उन्हें भी नागा साधु ही माना जाता है। हालांकि, सभी महिला नागा साधुओं को कपड़े पहनने की अनुमति होती है। उनके लिए एक विशेष नियम होता है कि वे केवल एक ही कपड़ा पहन सकती हैं, और उस कपड़े का रंग आमतौर पर गुरुआ होता है। इसके अलावा, सभी महिला नागा साधुओं को अपने माथे पर एक विशेष प्रकार का तिलक लगाना होता है।
महिला नागा ब्रह्मचार्य का करती हैं पालन
महिला नागा साधुओं की पहचान उनका गंती नामक बिना सिला हुआ वस्त्र होता है। नागा साधु दीक्षा लेने से पहले महिलाओं को कठोर तपस्या और ब्रह्मचर्य का पालन करना होता है, जो आमतौर पर 6 से 12 साल तक चलता है। इस दौरान वे संसार से पूरी तरह विरक्त हो जाती हैं। जब वे इन सभी नियमों का पालन कर लेती हैं, तब उनकी गुरु उन्हें नागा साधु दीक्षा देती हैं।
महिला नागा स्वयं का करती हैं पिडंदान
एक महिला नागा साधु बनने के लिए उसे एक कठिन और आध्यात्मिक यात्रा तय करनी होती है। उसे सबसे पहले यह साबित करना होता है कि वह पूरी तरह से ईश्वर को समर्पित हो चुकी है और सांसारिक मोह-माया से उसका कोई लगाव नहीं रहा। यह समर्पण केवल शब्दों का नहीं, बल्कि उसके जीवन के हर पहलू में दिखना चाहिए।
सबसे महत्वपूर्ण कदम होता है अपना पिंडदान करना। यह एक प्रतीकात्मक कार्य है जिसके माध्यम से साधु अपनी पिछली जिंदगी, अपने परिवार और रिश्तों से पूरी तरह नाता तोड़ लेती है। यह एक कठिन निर्णय होता है लेकिन यह साधु के आध्यात्मिक जीवन की शुरुआत का प्रतीक होता है।
महिलाओं को सन्यासी बनाने की पूरी प्रक्रिया आचार्य महामंडलेश्वर द्वारा संपन्न कराई जाती है। आचार्य महामंडलेश्वर अखाड़ों के सर्वोच्च पदाधिकारी होते हैं और वे यह सुनिश्चित करते हैं कि सभी औपचारिकताएं पूरी हो जाएं और महिला साधु को सभी आवश्यक दीक्षाएं मिल जाएं।
महिला नागा साधु प्रातःकाल उठकर नदी में पवित्र स्नान करती हैं। इसके पश्चात, वे अपनी साधना में लीन हो जाती हैं। दिन भर वे भगवान का जाप करती रहती हैं। विशेष रूप से, वे भगवान शिव और भगवान दत्तात्रेय की आराधना करती हैं।
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