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भारत की आध्यात्मिक संस्कृति में नागा साधु एक विशेष स्थान रखते हैं। आपने कुंभ मेले में इन्हें शाही स्नान करते, युद्ध कला का प्रदर्शन करते और परंपरागत तरीके से जीवन जीते हुए जरूर देखा होगा। इनकी जड़ें भारतीय सनातन धर्म में गहराई तक फैली हुई हैं। ये अनुशासन, संयम और साधना के लिए विख्यात हैं। ये नग्न रहते हैं, शरीर पर राख लगाते हैं और धर्म की रक्षा हेतु युद्ध कला में भी माहिर होते हैं। उन्हीं में से एक बर्फानी नागा कहलाते हैं। तो आइए इस आलेख में बर्फानी नागा साधुओं के बारे में विस्तार से जानते हैं।
नागा साधु बनने की प्रक्रिया कुंभ मेले में होती है। हरिद्वार में नागा साधु बनने वालों को ही 'बर्फानी नागा' कहा जाता है। क्योंकि, हरिद्वार का मौसम अन्य कुंभ स्थलों की तुलना में अधिक ठंडा होता है। वहीं, नासिक में नागा बनने वाले साधुओं को 'खिचड़ी नागा' कहा जाता है। नागा बनने की प्रक्रिया में साधुओं को कठोर तपस्या और साधना करनी होती है।
नागा साधुओं को शिव भक्त माना जाता है। वे स्वयं को दिगंबर यानी "आकाश को वस्त्र मानने वाला" कहते हैं। ये साधु वस्त्र नहीं पहनते और पूरे शरीर पर धूनी की राख लगाते हैं। इनका मुख्य उद्देश्य सनातन धर्म की रक्षा करना और अपनी आध्यात्मिक साधना को उच्चतम स्तर पर पहुंचाना होता है। नागा साधु त्रिशूल, तलवार, शंख और चिलम धारण करते हैं। जो उनकी सैन्य और आध्यात्मिक शक्ति को दर्शाते हैं।
नागा साधु ठंड से बचने के लिए विशेष योगासन और प्राणायाम करते हैं। उनके खानपान और विचार संयमित रहते हैं। नागा साधुओं का जीवन कुंभ मेले के दौरान देखने को मिलता है। यहां उनका आकर्षण भारतीयों और विदेशियों दोनों के बीच बहुत खास होता है।
प्राचीन परंपरा के अनुसार, नागा साधु बनने के लिए संन्यासियों को पहले एक गुरु के मार्गदर्शन में दीक्षा लेनी होती है। इस दीक्षा के बाद वे सांसारिक जीवन का त्याग कर देते हैं और अखाड़ों में शामिल हो जाते हैं। कुंभ मेले के दौरान यह प्रक्रिया विशेष रूप से देखी जाती है।
नागा साधुओं की परंपरा महर्षि वेद व्यास द्वारा शुरू की गई मानी जाती है। उन्होंने संगठित रूप से वनवासी संन्यासी परंपरा को प्रारंभ किया। इसके बाद ऋषि शुकदेव और अन्य ऋषियों ने इसे आगे बढ़ाया। वही, आधुनिक भारतीय सनातन धर्म का आधार आदि शंकराचार्य ने रखा। जो 5वीं शताब्दी ईसा पूर्व में हुए थे। शंकराचार्य ने देखा कि भारत पर विदेशी आक्रमणों और सामाजिक उथल-पुथल के चलते धर्म और संस्कृति को खतरा था। उन्होंने सनातन धर्म की रक्षा के लिए चार पीठों गोवर्धन पीठ, शारदा पीठ, द्वारिका पीठ और ज्योतिर्मठ पीठ की स्थापना की। अखाड़े धर्म के सैन्य पंथ की तरह थे। जहां साधुओं को शस्त्र संचालन और युद्ध कला में प्रशिक्षित किया जाता था। इन्हीं अखाड़ों में नागा साधुओं का निर्माण होता है।
कुंभ मेले में नागा साधु शाही स्नान के दौरान विशेष आकर्षण का केंद्र होते हैं। वे अपनी मंडली के साथ महामंडलेश्वर और श्रीमहंत के रथों की अगुवाई करते हुए स्नान के लिए जाते हैं। यह दृश्य भारतीय संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है।
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