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वर्तमान समय में, हिंदू धर्म में मनुष्यों के जन्म से मृत्यु तक 16 संस्कार किए जाते हैं। इन्हीं में से छठवां संस्कार निष्क्रमण संस्कार होता है। धार्मिक मान्यता है कि शिशु को 4 महीने तक सूर्य की किरणों और वातावरण के समक्ष नहीं लाना चाहिए। इससे उनके मानसिक और शारीरिक सेहत पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। ऐसे में जिस दिन शिशु को पहली बार बाहर लाया जाता है। उस दिन निष्क्रमण संस्कार किया जाता है। तो आइए, इस आर्टिकल में निष्क्रमण संस्कार, इसके महत्व और विधि के बारे में विस्तार से जानते हैं।
प्राचीन समय से शिशु संस्कार के विधान है। हालांकि, उस समय चालीस संस्कारों की प्रथा थी। हालांकि, समय के साथ इसमें कमी आ गई। अब इसकी संख्या घटकर 16 हो गई है। निष्क्रमण संस्कार का मुख्य उद्देश्य शिशु को वातावरण और समाज से अवगत कराना है। यह संस्कार शिशु की आयु वृद्धि के लिए किया जाता है। इस संस्कार के समय बच्चे के पिता शिशु के कल्याण की कामना करते हैं। चूंकि, हमारा शरीर पंचतत्व से बना होता है। ऐसे में पंचतत्वों का सामांजस्य ठीक रूप से बना रहे इसलिए भी यह संस्कार किया जाता है।
निष्क्रमण संस्कार बच्चे के जन्म के उपरांत उसके चौथे अथवा छठवें महीने में किया जाता है। बच्चे के जन्म लेने के बाद कुछ दिन बच्चे को घर से नहीं निकाला जाता। इसके पीछे मान्यता है कि जब तक बच्चा शारीरिक रूप से पूरी तरह स्वस्थ ना हो जाए तब तक उसे घर से बाहर नहीं निकालना चाहिए। इससे शिशु पर कुप्रभाव पड़ सकता है। ऐसे में निष्क्रमण संस्कार के समय सूर्य और चंद्रमा को पूजा जाता है। इस दौरान शिशु को सूर्य और चंद्रमा का दर्शन भी करवाया जाता है।
जिस दिन शिशु को पहली बार बाहर लाया जाता है। उसी दिन निष्क्रमण संस्कार किया जाता है। इस दिन शिशु को स्नान कराकर सुंदर कपड़े पहनाकर बाहर लाया जाता है। इस संस्कार के दौरान जातक को घर से बाहर निकाला जाता है। और उसे सूर्यदेव के दर्शन कराए जाते हैं। धार्मिक मन्यता है कि इससे बच्चे का शरीर तक पूरी तरह से स्वस्थ हो जाता है। साथ ही उसकी समस्त इंद्रियां भी अच्छे से काम करने लगती हैं।
शिशु के जन्म के चार या छह महीने बाद शिशु का शरीर धूप हवा इत्यादि को सहन करने लगता है। इसलिए, तब उसे सूर्य और चंद्रमा के दर्शन कराए जाते हैं। इस दौरान सूर्य-चंद्रमी समेत अन्य देवी-देवताओं का पूजन भी किया जाता है। अर्थवेद में इस संस्कार से संबंधित एक मंत्र है, जो इस प्रकार है।
“शिवे ते स्तां द्यावापृथिवी असंतापे अभिश्रियौ। शं ते सूर्य आ तपतुशं वातो वातु ते हृदे। शिवा अभि क्षरन्तु त्वापो दिव्या: पयस्वती:।।” अर्थात् निष्क्रमण संस्कार के समय देवलोक से लेकर भू लोक तक कल्याणकारी, सुखद व शोभा देने वाला रहे। शिशु के लिए सूर्य का प्रकाश कल्याणकारी हो व शिशु के शरीर में स्वच्छ वायु का संचार हो। पवित्र गंगा यमुना आदि नदियों का जल भी तुम्हारा कल्याण करें।
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