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काशी को वाराणसी के नाम से जाना जाता है। इसे धर्म और अध्यात्म की नगरी भी कहते हैं। यहां स्थित बाबा विश्वनाथ का मंदिर तो विख्यात है ही लेकिन मां दुर्गा का प्राचीन मंदिर भी उतना ही बड़ा आस्था का केंद्र है। यह मंदिर न केवल धार्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है बल्कि इसकी स्थापत्य कला और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि भी इसे अद्भुत बनाती है। इस मंदिर में भक्त माता के कई रूपों का एक साथ दर्शन कर सकते हैं। मान्यता है कि एक विशेष अनुष्ठान के बाद भक्त यहां एक विशेष प्रकार की सकारात्मक ऊर्जा का अनुभव भी करते हैं।
मां दुर्गा का यह दिव्य मंदिर काशी के सबसे प्राचीन मंदिरों में से एक है। इसका निर्माण 1760 ई. में बंगाल की रानी भवानी द्वारा किया गया था। ऐसा कहा जाता है कि उस समय मंदिर निर्माण पर 50 हजार रुपये खर्च हुए थे। इस मंदिर में मां दुर्गा 'यंत्र' रूप में विराजमान हैं। इसके साथ ही मंदिर में बाबा भैरवनाथ, देवी सरस्वती, देवी लक्ष्मी और मां काली की मूर्तियां भी स्थापित हैं। जो इसे धार्मिक रूप से और भी महत्वपूर्ण बना देती है।
मान्यता है कि मां दुर्गा ने शुंभ और निशुंभ नामक असुरों का वध करने के बाद इस स्थान पर विश्राम किया था। इस कारण मंदिर में मां का स्वरूप आदि शक्ति के प्रतीक के रूप में माना जाता है। इसलिए कहा जाता है कि इस मंदिर का अस्तित्व आदि काल से है। प्राचीन काशी में केवल तीन मुख्य मंदिर काशी विश्वनाथ, मां अन्नपूर्णा और मां दुर्गा हुआ करते थे। यहां कुछ भक्त तंत्र साधना भी करते हैं। मंदिर परिसर में स्थित हवन कुंड में प्रतिदिन भव्य हवन किया जाता है जो इसे तांत्रिक साधकों के लिए भी विशेष बना देता है।
इस मंदिर के पास स्थित दुर्गा कुंड से जुड़ी एक प्राचीन और रोचक कथा है। कहा जाता है कि काशी नरेश राजा सुबाहु ने अपनी पुत्री के स्वयंवर का आयोजन किया था। स्वयंवर से पहले सुबाहु की पुत्री को स्वप्न में राजकुमार सुदर्शन के साथ विवाह होते हुए दिखा। राजकुमारी ने यह सपना अपने पिता को बताया उन्होंने स्वयंवर में आए अन्य राजा-महाराजाओं को यह जानकारी दी। यह सुनते ही सभी राजा सुदर्शन के खिलाफ हो गए और युद्ध की चुनौती दी। राजकुमार सुदर्शन ने मां भगवती की आराधना की और युद्ध में विजय प्राप्त करने का आशीर्वाद मांग लिया। कहा जाता है कि मां भगवती ने युद्ध के दौरान सुदर्शन के सभी विरोधियों का वध कर दिया। युद्ध में इतना रक्त बहा कि वहां एक रक्त का कुंड बन गया जिसे आज दुर्गा कुंड के नाम से जाना जाता है। इसके बाद राजकुमार सुदर्शन का विवाह सुबाहु की पुत्री से हुआ।
इस मंदिर में मां दुर्गा के दर्शन के बाद एक विशेष प्रक्रिया का पालन करना अनिवार्य है। मंदिर के पुजारी के दर्शन के बिना मां की पूजा अधूरी मानी जाती है। यह एक प्राचीन परंपरा है, जिसे आज भी सभी भक्त पालन करते हैं। पुजारी से आशीर्वाद लेने के बाद ही मां दुर्गा की पूजा को पूर्ण माना जाता है। बता दें कि काशी का यह मां दुर्गा मंदिर अपनी प्राचीन वास्तुकला और धार्मिक महत्व के कारण श्रद्धालुओं के बीच विशेष स्थान रखता है। यहां आकर ना केवल भक्त मां के विभिन्न रूपों के दर्शन करते हैं बल्कि उनके साथ जुड़ी दिव्य कथाओं और विभिन्न प्रकार की तांत्रिक सिद्धियां के बारे में भी जानते हैं।
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